लगभग तेरहवीं शताब्दी के शुरू में सामन्तवाद का पतन शुरू हुआ।ऐसी व्यवस्था का पतन निश्चित है जिसमें कुछ थोड़े से लोगों को अधिक लोगों की अपेक्षा प्रमुखता दी जाती है
लगभग तेरहवीं शताब्दी के शुरू में सामन्तवाद(Feudalism) का पतन शुरू हुआ। सामाजिक व्यवस्था के रूप में यह प्रथा बहुत दिनों तक बनी रही। ऐसी व्यवस्था का पतन निश्चित है जिसमें कुछ थोड़े से लोगों को अधिक लोगों की अपेक्षा प्रमुखता दी जाती है। सामन्त प्रथा असमानता, अत्याचार, शोषण, अमानवीय दृष्टिकोण जैसे सिद्धान्तों पर आधारित थी । अतः पतन अवश्यम्भावी था।
नये हथियार एवं बारूद का चलन
नये हथियारों के प्रचलन, सामरिक पद्धति में परिवर्तन और विशेषता बन्दूक एवं बारूद के बढ़ते प्रयोग के कारण भी सामन्तवाद का शीघ्रता से पतन हुआ। अभी तक सामन्त किलों पर तीरों की मार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था । परन्तु अब बन्दूकों एवं तोपों की मार से किलों की दीवारें सामन्तों की रक्षा करने में असमर्थ थीं। राजा अब बारूद एवं गोलाबारी द्वारा सामन्तों के किलों पर आसानी से कब्जा कर लेते थे ।
कृषि उत्पादन में वृद्धि
कृषि क्षेत्र में तकनीकी परिवर्तन से उत्पादकता में वृद्धि हुई । कृषि क्षेत्र में दो खेत प्रणाली के स्थान पर तीन खेत प्रणाली का चलन हुआ । तीन खेत प्रणाली के अन्तर्गत कृषि योग्य भूमि को तीन बराबर टुकड़ों में बाँट दिया जाता था। राई या गेहूं सर्दी में पहले खेत में उगाया जाता था तथा मटर, ओट्स आदि बसन्त ऋतु में दूसरे खेत में तथा तीसरा खेत खाली छोड़ दिया जाता था । इस प्रणाली में जो खेत पहले वर्ष खाली छोड़ दिया जाता था उस पर अगले वर्ष खेती की जाती थी तथा दूसरे को खाली छोड़ दिया जाता था। इस तीन खेत प्रणाली के विस्तार से कृषि उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई । अतः अधिक लोगों का भरण-पोषण सम्भव हुआ । परिणामस्वरूप 1000 ई. तथा 1300 ई. के मध्य यूरोप की जनसंख्या लगभग दुगनी हो गई। शहरों का विकास और जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि हुई। शहरों के विकास से निर्मित वस्तुओं के उत्पादन में तथा आर्थिक विशिष्टकीकरण में वृद्धि हुई। अब कृषक की सामन्त पर निर्भरता कम हो गयी जिससे सामन्तवादी प्रणाली का पतन शुरू हुआ।
धर्मयुद्ध
सामंतवाद के पतन के मुख्य कारण 1095 से 1291 तक होने वाले धर्मयुद्ध थे। धर्मयुद्धों में भाग लेने वाले बहुत से सामन्तों ने या तो अपनी जमीन बेच दी थी या उसे गिरवी रख दिया था। इस तरह सामन्ती शक्ति तथा प्रभाव राजाओं अथवा व्यापारियों के हाथ में चले गये। अनेक सामन्त इन युद्धों में मारे गये और उनकी भूमि राजाओं द्वारा जब्त कर ली गई।
व्यापारिक वर्ग का उदय
धर्मयुद्धों के परिणामस्वरूप यूरोप के वाणिज्य-व्यापार में वृद्धि हुई । धर्मयुद्धों के समय यूरोप के लोगों को नये-नये देशों का ज्ञान हुआ और वे अन्य देशों से परिचित हुए। पूर्व की भोग विलास की वस्तुओं की माँग यूरोप में होने लगी। परिणाम स्वरूप व्यापारिक वर्ग का उदय हुआ। व्यापारियों ने खूब धन कमाया। कितने ही व्यापारी सामन्तों से अधिक सम्पन्न थे। इस प्रकार इस वर्ग के पास धन था, बुद्धि थी, परन्तु समाज तथा प्रशासन में महत्व नहीं था । सामन्तों की तुलना में इनको निम्न कोटी का समझा जाता था। अतः वे सामन्तो से ईर्ष्या करने लगे और उनके दमन के लिए राजाओं को आर्थिक सहयोग देने लगे।
व्यापार के विकास का एक महत्वपूर्ण कारण यूरोप में प्रतिवर्ष 1200 से 1400 ई. तक होने वाले व्यापारिक मेलों ने भी उल्लेखनीय योगदान दिया। ये मेंले यूरोप के महत्वपूर्ण शहरों में आयोजित होते थे तथा कई सप्ताह तक चलते थे। उत्तरी यूरोप के व्यापारी अपनी वस्तुएँ- अनाज, मछली, ऊन, कपड़ा, लकड़ी, लोहा, नमक आदि का विनिमय दक्षिणी यूरोप के व्यापारियों की वस्तुओं-मसाले, सिल्क, शराब, फल, सोना, चाँदी आदि से करते थे । पन्द्रहवीं शताब्दी में इन मेंलों का स्थान व्यापारिक शहरों ने ले लिया, जहां वर्ष भर व्यापार चलता था । व्यापार के विकास ने निर्मित वस्तुओं की अधिक मॉग को जन्म दिया। सोलहवीं शताब्दी में हस्तकला उद्योग, जिनमें शिल्पकार अपने औजारों तथा कच्चे माल से एक स्वतन्त्र लघु उद्योग द्वारा उत्पादन करते थे, का स्थान अपेक्षाकृत बड़े उद्योगों ने ले लिया। धीरे-धीरे पूँजीवादी आर्थिक प्रणाली का जन्म “हुआ जिससे सामन्तवादी आर्थिक प्रणाली का पतन हुआ ।
व्यापार, वाणिज्यतथाउद्योग-धन्धोंकेविकासकेपरिणामस्वरूपयूरोपमेंअनेकनये-नयेकस्बोंतथानगरोंकाविकासहुआ । कस्बोंऔरनगरोंकेव्यवसायियोंकोसस्तेमजदूरोंकीआवश्यकताथी । अतःउन्होंनेगाँवोंकेकिसानोंतथाकृषिदासोंकोप्रलोभनदेकरनगरोंमेंआकरबसनेकेलिएप्रेरितकिया । सामन्तोंकोयहपसन्दनहींआया । अतःदोनोंवर्गोंमें संघर्ष शुरू हो गया। राजा भी सामन्तों से छुटकारा चाहते थे। नवोदित वर्ग भी व्यापार के हितों के लिए राजा का समर्थन एवं संरक्षण चाहता था। व्यापारिक वर्ग ने राजाओं को सहयोग देकर सामन्तों की शक्ति को कम करने में उल्लेखनीय भूमिका निभायी।
स्थाई सेवा तथा राजा की शक्ति में वृद्धि
स्थायी सेना हो जाने से राजा की शक्ति में वृद्धि हुई । विभिन्न वर्गों के सहयोग ने भी राजा की शक्ति बढ़ाई। मुद्रा के प्रचलन ने राजा को अपने अधिकार कायम करने में एक और सहूलियत प्रदान की । वह प्रत्यक्ष रूप से अपने राज्य में कर लगाने लगा। राजा ने एक स्वतन्त्र नौकरशाही का सृजन करके भी प्रशासनिक क्षेत्र में सामन्तों के प्रभाव से मुक्ति पायी। इन विभिन्न कारकों ने राजा की शक्ति को निरकुंश बनाने एवं सामन्तों को दबाने में भूमिका अदा की।
किसानों का विद्रोह
यूरोप में सामन्त प्रथा का मूल आधार किसानों का शोषण था । उन पर वे घोर अत्याचार करते थे । सामन्ती उत्पीड़न से तंग होकर किसानों ने सामन्त प्रथा का विरोध किया। किसानों के संगठित विद्रोह को दबाना सामन्तों के लिए कठिन हो गया। इन्हीं दिनों एक ऐसी घटना घटी जिससे किसानों के विद्रोह ने व्यापक रूप धारण कर लिया। 1348 ई. में एक भीषण महामारी प्लेग ने, जिसे “काली मौत” कहा जाता है, यूरोप की लगभग आधी जनसंख्या का सफाया कर दिया। खेतों में काम करने वाले किसानों एवं मजदूरों की भारी कमी हो गयी। इंग्लैण्ड में कृषिदासों ने अपने काम के लिए उचित पारिश्रमिक जैसे अधिकार की माँग की। किन्तु इंग्लैण्ड की सरकार ने सामन्तों के प्रभाव में आकर किसानों को दबा दिया। 1381 ई. में ‘वाट टइलर’ के नेतृत्व में इंग्लैण्ड के हजारों किसानों ने विद्रोह किया। किसानों के इस विद्रोह में शिल्पियों, कारीगरों तथा निम्न श्रेणीयों के पादरियों ने भी भाग लिया। वाट टाइलर छुरा घोंपकर मार दिया गया। पादरी जौन बौल, जिसने किसानों की तरफदारी की थी, को फांसी दे दी गयी। परन्तु किसानों का स्वातंत्र्य प्रेम नहीं मरा । शहरों के उदय के कारण अब किसानों का सामन्तों पर निर्भर रहना आवश्यक न रह गया, क्योंकि वे शहरों में रोजी-रोटी कमा सकते थे। इस तरह कृषक- विद्रोहों ने सामन्तवाद की नींव हिला दी।
सामन्तों के आपसी संघर्ष
सामन्तों के आपसी संघर्ष भी सामन्तवाद के पतन का एक बड़ा कारण था। सभी सामन्त अपनी अलग-अलग सेना रखते थे। इन सेनाओं ने एक ओर तो बर्बर आक्रमणकारियों से देश की रक्षा की दूसरी ओर आपस में लड़कर सामन्ती शक्ति को क्षीण किया। फ्रांस और इंग्लैण्ड में इस तरह के संघर्ष उल्लेखनीय रहे।